Sharing a few lines penned by my mom on the 'festival of lights'.
In an increasingly market-driven celebration of the festival, these lines convey a fresh perspective.
दीवाली कुछ हट कर
घर दीवार कुछ मैली हो तो कोई बात नहीं
मन का मैल धुल जाए, तो कोई बात बने
पटाखे फुलझड़ी आतिशबाजी सब प्रदूषण के फंडे
नन्हे चेहरों पर मुस्कान खिले, तो कोई बात बने
ग्रीटिंग कार्ड और तोहफे कह न पाएंगे संदेसे
घर से शिक्षा अभियान चले, तो कोई बात बने
सैंकड़ों झालर की झिलमिल में वो बात कहाँ
उजाला नेत्रदान देकर करो, तो कोई बात बने
ढेरों मिठाई में वो चसक वो मिठास कहाँ
दुखी की कएर दुःख शेयर करो, तो कोई बात बनें
लक्ष्मी-गणेश मुस्काएं, वरद हस्त उठायें
दीवाली यूँ हट कर मनाएं, तो कोई बात बनें
Mudita,
ReplyDeleteHow I really wish what she says is genuinely followed, particularly the opening lines.
Take care
PS : No visits?